पंखुरी के ब्लॉग पे आपका स्वागत है..

जिंदगी का हर दिन ईश्वर की डायरी का एक पन्ना है..तरह-तरह के रंग बिखरते हैं इसपे..कभी लाल..पीले..हरे तो कभी काले सफ़ेद...और हर रंग से बन जाती है कविता..कभी खुशियों से झिलमिलाती है कविता ..कभी उमंगो से लहलहाती है..तो कभी उदासी और खालीपन के सारे किस्से बयां कर देती है कविता.. ..हाँ कविता.--मेरे एहसास और जज्बात की कहानी..तो मेरी जिंदगी के हर रंग से रूबरू होने के लिए पढ़ लीजिये ये पंखुरी की "ओस की बूँद"

मेरी कवितायें पसंद आई तो मुझसे जुड़िये

Saturday 29 November 2014

तनहा रात



ना लिखने को कोई बात है,


ना उभरे कोई जज्बात हैं,

बस मै हूँ ..सिर्फ मै

और ये तनहा रात है


ना तारें हैं टिमटिमाने को 

ना चाँद है गुनगुनाने को 

बस स्याह अकेली रात है 

मन मेरा बहलाने को 

ना होठों पर है हंसी

ना आंसुओ की सौगात है 

बस मै हूँ ..सिर्फ मै 

और ये तनहा रात है 


ना स्याही है कलम में,

आक्रोश के शब्द बहाने को

ज़ज्ब कर गया कोरा कागज़ ,

दिल के सारे फसानो को

ना ख़ुशी से कोई उमंग ,

ना गमो का एहसास है ..

बस मै हूँ ..सिर्फ मै

और ये तनहा रात है 


                                                                                      -----पारुल'पंखुरी'
                                                                                picture courtesy : google 

Tuesday 14 October 2014

ख्वाबों के गुलशन




ख्वाबों के फूलों से
सजाये गए गुलशन
महका करते हैं
रातों को
होते हैं खूबसूरत
जन्नत की तरह
रंगीले चमकीले
सपनीले
खिलते हैं
तारों की छाँव में
मगर...
ऐसी जिंदगी
की सुबह की सूरत
अक्सर
काली हुआ करती है
अँधेरे से भी काली


----------------पारुल’पंखुरी’


चित्र -- साभार गूगल (aoao2.deviantart.com)

Tuesday 7 October 2014

कांच के टुकड़े















कौन है अपना

यहाँ सब हैं पराये

हर शख्स मिला

चेहरे पे चेहरा लगाए

आगे भलाई का तिरंगा

पीछे बुराई का पुलिंदा

आगे प्यार की बौछार

पीछे खंजर से वार

ऐसे झूठ से

जब पर्दा उठता

चुभता दर्द का काँटा

दिल में हर बार

वही जख्म फिर

हरा हो जाता

मिलता उसी जगह

जब खंजर से वार

इंसानों की इस भीड़ में

मै अदना सी इंसां

मेरा दिल बस

प्यार ही तो चाहता है

क्यों बार -बार

शतरंजी चालो से

शीशे की तरह..दिल

मेरा बिखर जाता है

आज सोचा इन शीशे के

टुकडो को समेट दू

इन कांच के टुकडो को

कविता में सहेज लूँ

कविता में सहेज लूँ
---------------------------------------पारुल'पंखुरी'

Sunday 5 October 2014

धधकती आग


















एक आग धधकती सीने में

क्या इसका मै उपचार करूँ


दर्द की हवाओ से सुलगाऊं


यू ही खुद पे अत्याचार करूँ



या करूँ अब इसका आमना सामना


तन मन में हिम्मत उपजाऊं


शोले छूने से डर जाऊं


या इस आग से अब साक्षात्कार करूँ



इस आग को अपनी शक्ति बना लूँ


इसकी लपटों से जल जाऊ


जलने दू इसको सीने में


या नयन बूँद से इसका संहार करूँ


खो जाऊं अंधेरो की गहराई में


जीवन में पल पल डरती जाऊं


या इस आग से भर लू रोम रोम को


प्रहलाद बनने को मन तैयार करूँ



 -----पारुल'पंखुरी'

चित्र-- साभार गूगल (www.fark.com

Wednesday 1 October 2014

कैदी मन






















तन पिंजड़ा मन कैदी उड़ने को मेरा जी चाहे
बंधी हुई मैं  जंजीरों से मन तोड़ तोड़ उनको हारे
कुछ ख्वाब टूटे कुछ ख्वाइशें अधूरी
उस पर कुछ आंसू घुटते मरते
मेरे जिस्म के एक सिरे से दूजे सिरे तक दौड़े भागे
तन पिंजड़ा मन कैदी उड़ने को मेरा जी चाहे
इस दर्द ने मुझको बहका ही लिया
मुझमें ही मुझको क़ैद किया
कौन हूँ मैं  क्या नाम है मेरा
इस टीस  ने ये भी भुला दिया
आईना  भी मेरा मुझे पहचानता  नहीं
ए मेरे खुदा  मुझे तू मुझसे मिला
तन पिंजड़ा मन कैदी उड़ने को मेरा जी चाहे
मन किस दोराहे पे है खड़ा हुआ
एक छटपटाहट से है ये भरा हुआ
मेरे बंधन सारे खोल दे
सौदा है ये भी गर  तुझसे
मेरी मुस्कानें तू मोल ले
कैदी मन को मेरे तू अपनी नेमतों से तोल  दे
तन पिंजड़ा मन कैदी उड़ने को मेरा जी चाहे
उड़ने को मेरा जी चाहे

----------------------------------पारुल'पंखुरी'


चित्र-- साभार गूगल (www.mymodernmet.com)

Monday 29 September 2014

किरचें













साल दर साल 


गुजरते रहे 

परत दर परत 

चढ़ती गयी 

मुस्कान |

खरीदती रही 

भावनाओं का 

सौदा करके,
 
खुशियां 

ढूंढती रही 

अरमानों को 

सिल के |

आँखों ने 

एक नया 

सपना 

देखने की 

जुर्रत कर दी 

तभी 

आंसू 

की जगह 

खून बह निकला 

टूटे सपनों की 

किरचें 

अब तक धंसी 

जो हैं आँखों में

---------------पारुल'पंखुरी'

चित्र -- साभार गूगल 

Thursday 12 June 2014

मै चुप रहा







रक्त रिसता रहा
आग जलती रही
कभी राम
कभी रहीम
बलि चढ़ती रही
सियासी चालों की भेंट
मै चढ़ता गया
फिर भी मै चुप रहा

लूट डकैती
गोली सरेआम
लाल हुई सुबह
हुई शाम लाल
दिन डरावने
रातें भयंकर
नौनिहालों पर कहर
बरसा निरंतर
खून के आँसू
मै पीता गया
फिर भी मै चुप रहा

काँधें मेरे
अब
झुकने लगे
पेड़ो पर जब
शव लटकने लगे
माता बहन
या हों बच्चियां
अभी बहुत
बाकी हैं रस्सियाँ

हाय!
पीड़ा से ह्रदय
मेरा छलनी हुआ
क्यूँ अब तक
मै यूँ चुप रहा
फटता ज्वालामुखी
नवनिर्माण होता
इस तरह मै ना
यूँ लहुलुहान होता
क्या हूँ आज
मात्र
लोथड़ों का
अवशेष हूँ
मै
उत्तर प्रदेश हूँ

------------पारुल'पंखुरी'
चित्र -- साभार गूगल

Wednesday 21 May 2014

मंजिका






पड़े हैं पाँव में छाले जमीं पे फिर टिकाती है
मुरझाई मन की बगिया मोगरे से सजाती है
बदलता है चेहरा रात में, अक्सर शरीफों का
बुझाने पेट की अग्नि देह चूल्हे चढ़ाती है

जीवन क्षणभंगुर मृत्यु एक दिन सबकी आती है
उजाले में कहाँ, सच्चाई पहचानी जाती है
होती है दरवाजे पर जब धीमी कोई दस्तक
अर्थी तो नहीं उठती बे-मौत मारी जाती है

कहलाते जो सभ्य करते स्याह को हरदम सफ़ेद
लगाते मुखौटे डर से कहीं खुल जाए ना भेद
करती दाह स्वयं का वासना की प्रचंड आग में
समेटकर कलुष सब समाज को गंगा बनाती है


वह एक मंजिका है देह की मंडी सजाती है
हाँ .. वह मंजिका है

---------------------------------पारुल 'पंखुरी'

चित्र साभार google

Tuesday 22 April 2014

विश्व पृथ्वी दिवस

२२ अप्रैल  प्यारे मित्रों आप सभी जानते हैं की आज विश्व पृथ्वी दिवस है .. पहले सोचा कोई कविता लिखूँ फिर सोचा की कोई लेख लिखू लोगो को जगाने के लिए फिर अचानक दिमाग पलटा और  सोचा की दूसरो को कुछ सिखाने के लिए पहले खुद उस चीज पर अमल करना जरुरी है .. तो बस वही मैंने विश्व पृथ्वी दिवस पर सोचा बनाया और अब आप सबके सामने प्रस्तुत कर रही हूँ

प्लास्टिक हमारे देश की एक बहुत बड़ी समस्या है इसलिए उसे कम इस्तेमाल करे करना भी पड़ रहा है  तो उस प्लास्टिक को फेंके नहीं बल्कि उसे  re-use करने की कोशिश करें ,पृथ्वी की बात हो और पेड़ पौधों की बात न हो तो बेईमानी होगी तो  मैंने यही किया घर में पड़ी बेकार प्लास्टिक बोतलों को काटा (कैंची) से आराम से कट जाती हैं फिर उन्हें धागे या तार की सहायता से बाँध दिया और ऊपर के दो बोतल में छोटा सा छेद कर दिया मन हो तो थोडा सा रंग कीजिये  और बन गए घर में लगाने के लिए सुन्दर सुन्दर प्लांटर्स इनमे छोटे पौधे लगा के आप कहीं पे भी टांग सकते हैं

जब अपने हाथ से बने प्लान्टर में लगाये हुए पौधे को बड़ा होते देखती हूँ तो यकीन मानिये उससे ज्यादा संतोषजनक कुछ नहीं लगता उस समय मन से स्वतः ही कविता बहने लगती है रंगों में फूलो में  मिटटी में पौधों में सब जगह बस कविता ही कविता दिखती है

आप भी इसे बना कर देखिये

छोटे छोटे पौधों में जब छोटे छोटे फूल खिलेंगे
तन मन की सारी पीड़ा वो पल भर  में  हर लेंगे
रखना ध्यान इस बगिया के इन नन्हे मुन्नों का
देखना कैसे घर-आँगन  को ये हरा भरा कर देंगे

------------------------------------------------------पारुल'पंखुरी





------picture  by my own digi cam 

Tuesday 8 April 2014

शून्य
















शून्य
होता तो है पूरा
किन्तु कितना रिक्त
कोई ओर नहीं
कोई छोर नहीं
अकेला है तो अधूरा
परन्तु
दूसरो के लिए सहारा
शून्य
लगता कितना सिक्त
जब गिरता है
एहसास कराता है
जिन्दा होने का
शून्य .....

-------------------पारुल'पंखुरी'

picture courtesy --s3ntim3nts.blogspot.com via google



Friday 7 March 2014

कैसे लिखूँ कविता

महिला दिवस पर सोचा के कविता लिखूँ मगर लिख नहीं पायी |
लिखूँ भी तो क्या बच्चियां ,जवान ,बूढी ,कुवांरी ,शादीशुदा
स्त्री कैसी भी हो  कहीं पर भी सुरक्षित नहीं ..बहुत पीड़ा होती है
मन को जब आये दिन छोटी बच्चियों के साथ दुराचार की घटनाएं
सुनने को मिलती है  






कैसे लिखूँ कविता
व्यथित हृदय के छोर से ,
गूँज रही मस्तिष्क में
महाभारत हर ओर से।
हर राह में दुःशासन,
हर घर में शकुनि
पांडव रहा नहीं कोई ,
बदलने को नियति
चीथड़ों में सिमटी ,
पड़ी वह भोर से
कैसे लिखूँ कविता
व्यथित हृदय के छोर से।
पूजते हैं गौरी ,हर्ष
गौरी का मनाते नहीं
माधव भी अब ,बचाने
लाज आते नहीं
मासूमियत छिनी ,
बचा निष्प्राण मन
सिसकियाँ कुचली गयी
भीड़ के शोर से
कैसे लिखूँ कविता
व्यथित हृदय के छोर से।
----------------------------पारुल'पंखुरी'


picture courtesy : google 

Wednesday 26 February 2014

कितने दिलकश होते हैं वो













कितने दिलकश होते हैं वो
उडी नींदों भरी रातें और बेचैनी भरे रंगीले दिन
नजरो से नजरो की मुलाकातों भरे नशीले दिन
खामोशियों में भी बेइंतहा बातों भरे सजीले दिन
धडकनों का एहसास दिलाते गुदगुदाते रसीले दिन

कितने दिलकश होते हैं वो ....
खुद से हरदम पूछे मासूम सवालातो भरे हंसाते दिन
तनहाइयों में रहने का बहाना बनाते गुनगुनाते दिन
कुछ अजीब सी उलझनों में उलझाते बलखाते दिन
बला की ख़ूबसूरती आईने में दिखाते इतराते दिन

कितने दिलकश होते हैं वो …
दिल की बात होंठो तक आने को कसमसाते दिन
इकरार और इजहार से पहले के टिमटिमाते दिन
मुहब्बत उसको भी है ये सोच के सकुचाते शरमाते दिन
मुहब्बत मुझको भी है ये सोच के लहलहाते मुस्कुराते दिन

-------------पारुल 'पंखुरी'

picture courtesy--via google (abstract.desktopnexus.com)

Saturday 15 February 2014

मेरा मन















कभी समंदर किनारे

गीले रेत पे

उंगलिया फिराता

सीपी से मोती

चुराने को कभी

गहरे समंदर में

डुबकी लगता

भागे कभी नीली

तितली के पीछे

ढूंढ़ने उसके

घर का पता

ये इंद्रधनुष

आसमा में कैसे टंगा

रहे कभी बस

यही सोचता

दौड़ता भागता

फ़िरे वन उपवन

भटकता रहे बावरा मेरा मन




उमंग के घुंघरू बांधे

कभी रहे नाचता

कभी मुस्कुराये खुद-ब-खुद ,

क्यूँ ? ,क्या पता

कुहासी खिड़कियों के पार

घंटो रहे देखता

बुनता ख्यालो का स्वेटर

कभी यादों के शॉल ओढ़ता

यादो कि कश्तियाँ कभी

बारिशो में देता बहा

पतझड़ भी लगे सुहाना

कभी भाये न इसे बसंत

भटकता रहे बावरा मेरा मन

------------------पारुल'पंखुरी'

picture courtesy---www.123rf.com(via google)




Wednesday 12 February 2014

तुम मिले


तुम मिले तो .. जीवन में बसंत छा गया 
धीरे से कानो में मेरे, प्रेम गीत गा गया

तितलियाँ फूलो पर मंडराने लगी
खुशबु हारसिंगार कि चारों ओर बही
पग-पखारने को तुम्हारे
पथ में कलियाँ बिछी
किया तुमने स्वीकार जब
कलियों का प्रणय निवेदन,तब
बादलो ने किया शंखनाद
हवाओ के रथ पे होके सवार
प्रेम तुम्हारा, मन मेरा , महका गया
तुम मिले तो जीवन में बसंत छा गया

धूप रुपी सुंदरी ओढ़े मेघ चुनरी
सखी बन मेरी घर तुम्हे लाने लगी
थोड़ी लाज थोड़ी शर्म हिलोरे मारे उमंग
ख़ुशी अश्रु बन नयनों से मेरे बही
जब आँगन में तुमने रखे अपने पग
घटाएं मंत्र विवाह के थी सुनाने लगी
गले में मेरे तुमने बाहों के डाले हार
उस पल जीवन मेरा अर्थ पा गया
तुम मिले तो जीवन में बसंत छा गया
तुम मिले तो …………
------------------------------------पारुल'पंखुरी'

picture courtesy---thisveganrants.blogspot.com(via google)
Related Posts Plugin for WordPress, Blogger...