कौन है अपना
यहाँ सब हैं पराये
हर शख्स मिला
चेहरे पे चेहरा लगाए
आगे भलाई का तिरंगा
पीछे बुराई का पुलिंदा
आगे प्यार की बौछार
पीछे खंजर से वार
ऐसे झूठ से
जब पर्दा उठता
चुभता दर्द का काँटा
दिल में हर बार
वही जख्म फिर
हरा हो जाता
मिलता उसी जगह
जब खंजर से वार
इंसानों की इस भीड़ में
मै अदना सी इंसां
मेरा दिल बस
प्यार ही तो चाहता है
क्यों बार -बार
शतरंजी चालो से
शीशे की तरह..दिल
मेरा बिखर जाता है
आज सोचा इन शीशे के
टुकडो को समेट दू
इन कांच के टुकडो को
कविता में सहेज लूँ
कविता में सहेज लूँ---------------------------------------पारुल'पंखुरी'
यहाँ सब हैं पराये
हर शख्स मिला
चेहरे पे चेहरा लगाए
आगे भलाई का तिरंगा
पीछे बुराई का पुलिंदा
आगे प्यार की बौछार
पीछे खंजर से वार
ऐसे झूठ से
जब पर्दा उठता
चुभता दर्द का काँटा
दिल में हर बार
वही जख्म फिर
हरा हो जाता
मिलता उसी जगह
जब खंजर से वार
इंसानों की इस भीड़ में
मै अदना सी इंसां
मेरा दिल बस
प्यार ही तो चाहता है
क्यों बार -बार
शतरंजी चालो से
शीशे की तरह..दिल
मेरा बिखर जाता है
आज सोचा इन शीशे के
टुकडो को समेट दू
इन कांच के टुकडो को
कविता में सहेज लूँ
कविता में सहेज लूँ---------------------------------------पारुल'पंखुरी'
बहुत ही सुन्दर , संवेदनशील प्रस्तुति. कई बार हम चीजों को जैसा देखते हैं , वैसा होता नहीं है . परिस्थितियां कई बार सत्य को आवरण में ऐसे आच्छादित कर लेती है कि सत्य और असत्य का भेद स्थापित करना सर्वथा मुश्किल हो जाता है. लेकिन समय अंततोगत्वा तिमिर को तिरोहित कर ही देता है और तब जब सत्य चमकता हुआ अवतरित होता है तो सारे आवरण अपने आप छट जाता है .
ReplyDeleteअपने दिल की भावनाओं को बहुत ही सुन्दरता से शब्दों में गढ़ कर कविता रुपी अम्बर मे जलते बुझते सितारों की तरह टांक दिया है ..
bahut hi sundar comment karte/karti hain aap par aap agyat ki tarah comment kyu kar rahe hain kya mai aapka naam jaan sakti hun?
Deleteमहत्वपूर्ण क्या है कि आपको बात अच्छी लगी. नाम में क्या रखा है नाम बस अज्ञात ही समझ लीजिये .
Deleteखुश्बू, पानी, बदली , शबा इनकी अपनी पहचान कहाँ होती है . :)
khushbu paani badli hawa ki pehchaan bhi hoti hai aur naam bhi aap apna naam batayenge to mujhe achha lagega ..waise bhi jiske shabd itne sundar hai wo khud kaisa /kaisi hogi ye jaanne ki badi utsukta hai mujhe !!
Deletebahut bahut shukriya ravikar ji
ReplyDeleteकोई न कोई
ReplyDeleteकहीं न कही अपना होता है
शीशे की चुभन उसे भी लहूलुहान करती है
हाँ - शिद्दत से चाहो तो नज़र आता है
बहुत सुन्दर रचना।
ReplyDeleteबहुत ही सुन्दर भावनात्मक प्रस्तुति .............
ReplyDeleteaap sabhi ka bahut bahut shukriya :-)
ReplyDeleteबहुत सुन्दर
ReplyDeleteबढ़िया अभिव्यक्ति है , मंगलकामनाएं कलम को !!
ReplyDeleteइन कांच के टुकड़ों को फैंकना ही बेहतर है ... काविता में शब्दों में ढल कर भी चुभते रहेंगे ...
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