पड़े हैं पाँव में छाले जमीं पे फिर टिकाती है
मुरझाई मन की बगिया मोगरे से सजाती है
बदलता है चेहरा रात में, अक्सर शरीफों का
बुझाने पेट की अग्नि देह चूल्हे चढ़ाती है
जीवन क्षणभंगुर मृत्यु एक दिन सबकी आती है
उजाले में कहाँ, सच्चाई पहचानी जाती है
होती है दरवाजे पर जब धीमी कोई दस्तक
अर्थी तो नहीं उठती बे-मौत मारी जाती है
कहलाते जो सभ्य करते स्याह को हरदम सफ़ेद
लगाते मुखौटे डर से कहीं खुल जाए ना भेद
करती दाह स्वयं का वासना की प्रचंड आग में
समेटकर कलुष सब समाज को गंगा बनाती है
वह एक मंजिका है देह की मंडी सजाती है
हाँ .. वह मंजिका है
---------------------------------पारुल 'पंखुरी'
चित्र साभार google
बहुत सुन्दर रचना
ReplyDeleteउत्कृष्ट प्रस्तुति
बधाई ----
आग्रह है---
नीम कड़वी ही भली-----
इस परिवेश का सच यह भी ..... अर्थपूर्ण पंक्तियाँ
ReplyDeleteमार्मिक ... कुछ भी कहने में समर्थ नहीं पा रहा हूँ अपने को ...
ReplyDeletebahut hi arthpurn evam samaj ke syah paksh ko ujaagar karti prabhavshaali rachna... bahut badhai...
ReplyDeleteआपकी इस रचना को आज दिनांक २२ मई, २०१४ को ब्लॉग बुलेटिन - पतझड़ पर स्थान दिया गया है | बधाई |
ReplyDeletesundar rachna............
ReplyDeleteविचलित करती सी अभिव्यक्ति ......
ReplyDeleteअँधेरे का यथार्थ ....बहुत सुन्दर
ReplyDeleteबहुत सुन्दर रचना
ReplyDeleteउत्कृष्ट प्रस्तुति
बधाई ----अर्थपूर्ण पंक्तियाँ
समाज का यथार्त प्रस्तुत करती पंक्ती....
ReplyDeleteHey there, You've done an excellent job. I'll definitely digg it and personally
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thanx :-) but i cnt access ur blog dnt know wats d prblm !
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