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Sunday, 5 October 2014

धधकती आग


















एक आग धधकती सीने में

क्या इसका मै उपचार करूँ


दर्द की हवाओ से सुलगाऊं


यू ही खुद पे अत्याचार करूँ



या करूँ अब इसका आमना सामना


तन मन में हिम्मत उपजाऊं


शोले छूने से डर जाऊं


या इस आग से अब साक्षात्कार करूँ



इस आग को अपनी शक्ति बना लूँ


इसकी लपटों से जल जाऊ


जलने दू इसको सीने में


या नयन बूँद से इसका संहार करूँ


खो जाऊं अंधेरो की गहराई में


जीवन में पल पल डरती जाऊं


या इस आग से भर लू रोम रोम को


प्रहलाद बनने को मन तैयार करूँ



 -----पारुल'पंखुरी'

चित्र-- साभार गूगल (www.fark.com

4 comments:

  1. बहुत ही बढ़िया

    सादर

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  2. बहुत सुंदर भावुक करने वाली संवेदनशील रचना ॥
    ..
    दुर्बल होते हैं जो स्वयं पे अत्याचार करते है
    वीर दर्द को बना शक्ति दर्द का उपचार करते हैं ।
    स्व-शक्ति स्वयं समेटे स्त्री जब बढ़ती है करके लक्ष्य
    बाधाओं को लांघ हर्ष का साक्षात्कार करती है ।
    :)

    ReplyDelete
  3. सही ढंग से उकेरा मन का द्वंद्व

    ReplyDelete
  4. भागने से आज तक कब काम चला है, वो भी "खुद से भागना" - साक्षात्कार तो करना होगा

    ReplyDelete

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