भांति भांति के होते हैं लोग
कुछ भोले कुछ बडबोले
कुछ शर्मीले कुछ रंगीले
कुछ दौड़ते..भागते..खींचते,
कुछ बंद कमरों के पीछे से झांकते
झांकते हैं अपने ही दिमाग की खिडकियों से
क्यूकी उस घर में न कोई झरोखा है..न खिड़की
दिमाग की खिड़की में अपनी
दूरबीन लगा के.
जुगत भिड़ा के
बताते हैं....फलां...लड़के के साथ ,
नैन लड़ा रही है.... फलां...की लड़की।।
उन्हें बस झांकना है
किसी का भी सम्बन्ध किसी से भी टांकना है
कौन कब आया
कौन कब गया
बहीखाते के हिसाब के जैसे.. रखते हैं ये सब पता
किस्सा न हुआ हाजमे का चूरन हो गया
सुबह दोपहर शाम
नियम से खाते ..औरो को भी खिलाते
हो सड़क कितनी भी साफ़
चलते हैं ये कीचड़ के पानी में पैर छपछपाते।।
अपने घर में बिजली पानी है के नहीं
उसकी बिलकुल नहीं करते परवाह
"उस" के घर की बत्ती कब जली...कब बुझी
इन्ही..ब्रेकिंग न्यूज़ से अपनी बातो को देते रहते हवा...
इन हवाओ से शोले दूर तक बरसते हैं
जाने अनजाने कितने ही दामन ख़ाक हुआ करते हैं।।
अब कौन इन्हें समझाए
कीचड़ के पानी में चलने में चतुराई कितनी है...
जिस दिन खुद गिरेंगे गड्ढे में कीचड़ के..
तभी जानेंगे..कीचड़ की गहराई कितनी है।।
----------------पारुल'पंखुरी'
सच कहा है ... ऐसे लोग होते हैं ... पर उनको समझाना बहुत ही मुश्किल काम है ...
ReplyDeleteसोचो तो सब कुछ है न सोचो तो कुछ भी नहीं | हर दुसरे मोहल्ले का राग है वैसे ये तो | हर जगह एक न एक घर तो ऐसा होता ही है जिस पर सभी की निगाह होती है | कुछ तो लोग कहेंगे, लोगो का क्या है उनका काम है कहना वो तो कहते ही रहेंगे |
ReplyDeleteआज के समाज का आइना .....सटीक!
ReplyDeleteशुभकामनायें!
वाह, मज़ा आ गया..पता नही कब से मेरे भी दिल में कुछ ऐसा ही था...आपने उसे बहुत ही उम्दा तरीके से पेश किया है... बहुत अच्छी लगी ये रचना। मैंने जब भी आपकी कोई रचना पढ़ी..लगा जैसे मेरे ही मन की बात हो....हमारे नाम मिलते हैं शायद ...पता नहीं...पर बहुत अच्छा लिखती हो आप। आपको बधाई..और मुझसे जुड़ने के लिए शुक्रिया !
ReplyDeleteआपकी इस उत्कृष्ट पोस्ट की चर्चा बुधवार (13-03-13) के चर्चा मंच पर भी है | जरूर पधारें |
ReplyDeleteसूचनार्थ |
shukriya pradeep ji :-)
Deleteसटीक अभिव्यक्ति. अपने समाज में अशिकांश लोगो का ये सबसे प्रिय काम है.
ReplyDeleteउर्दू के मशहूर शायर जॉन एलिया का शेर यद् आ रहा है-
उसकी गली से उठ के मैं, आन पड़ा अपने घर
बात एक गली की थी, और गली गली गयी
बढ़िया भाव-
ReplyDeleteआभार आदरेया-
बहुत सुंदर और प्रभावी रचना ........हमारी सबकी जिंदगी का वो हिस्सा जो हम देखकर भी अनदेखा कर चलते हैं ....
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ReplyDeleteदुनिया में झाँकने वालों की कमी नहीं है
बहुत सुंदर रचना
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बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति, एक सामाजिक प्रवृति जो विकृति की हद तक चली जाती है .. को बयां करती अच्छी कविता..
ReplyDeleteऐसे झाकने वाले लोग हर जगह मिल जायेगें,,,
ReplyDeleteRecent post: होरी नही सुहाय,
सब देखा जिया सा...... सही लिखा है
ReplyDeleteसच, समझाना मुश्किल है
ReplyDeleteआज की मानव प्रवृत्ति पर गहरा प्रहार करती सटीक रचना
ReplyDeleteआज लोगों का सबसे प्रचलित शगल यही है. कविता सच्चाई से जुडी है और करारा व्यंग है समाज पर.
ReplyDeleteaap sabhi ka blog par aane aur kavita par tippani karne ke liye bahut bahut shukriya :-)
ReplyDeleteएकदम सच्चा दृश्य प्रस्तुत किया है। बधाई।
ReplyDeleteबहुत ही सुंदर और सटीक विषय पर आपने ये रचना चटपटे अंदाज में पेश की है ..मगर विषय सचमुच है गंभीर ...लेकिन इस प्रवृति के लोग न कभी बाज आये हैं न ही कभी आएंगे ...एक सच्चाई ये भी है कि हो सकता है कोई मुझे भी इसी दृष्टि से देखता हो ...जैसे मैं किसी को समझता हूँ ....जब मैं ये कहता हूँ की ज़माना ख़राब हो गया है ..तब मैं अपने को दूर रख के कहता हूँ ..मगर जब यही बात कोई दुसरा व्यक्ति कहता है तो ..फिर उस जमाने में तो मैं भी शामिल हो जाता हूँ ...कुछ ये ही चक्र है संसार का \ मेरी बात का अर्थ सही मायनों में समझें ..ये मेरी गुजारिश है । रचना के विषय के लिए बहुत बहुत धन्यवाद ।
ReplyDeleteबहुत ही सुंदर और सटीक विषय पर आपने ये रचना चटपटे अंदाज में पेश की है ..मगर विषय सचमुच है गंभीर ...लेकिन इस प्रवृति के लोग न कभी बाज आये हैं न ही कभी आएंगे ...एक सच्चाई ये भी है कि हो सकता है कोई मुझे भी इसी दृष्टि से देखता हो ...जैसे मैं किसी को समझता हूँ ....जब मैं ये कहता हूँ की ज़माना ख़राब हो गया है ..तब मैं अपने को दूर रख के कहता हूँ ..मगर जब यही बात कोई दुसरा व्यक्ति कहता है तो ..फिर उस जमाने में तो मैं भी शामिल हो जाता हूँ ...कुछ ये ही चक्र है संसार का \ मेरी बात का अर्थ सही मायनों में समझें ..ये मेरी गुजारिश है । रचना के विषय के लिए बहुत बहुत धन्यवाद ।
ReplyDeleteबहुत ही सुंदर और सटीक विषय पर आपने ये रचना चटपटे अंदाज में पेश की है ..मगर विषय सचमुच है गंभीर ...लेकिन इस प्रवृति के लोग न कभी बाज आये हैं न ही कभी आएंगे ...एक सच्चाई ये भी है कि हो सकता है कोई मुझे भी इसी दृष्टि से देखता हो ...जैसे मैं किसी को समझता हूँ ....जब मैं ये कहता हूँ की ज़माना ख़राब हो गया है ..तब मैं अपने को दूर रख के कहता हूँ ..मगर जब यही बात कोई दुसरा व्यक्ति कहता है तो ..फिर उस जमाने में तो मैं भी शामिल हो जाता हूँ ...कुछ ये ही चक्र है संसार का \ मेरी बात का अर्थ सही मायनों में समझें ..ये मेरी गुजारिश है । रचना के विषय के लिए बहुत बहुत धन्यवाद ।
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