बेला गुलाब चंपा चमेली...
आई प्यारी सखी सहेली...
कोई लहराई...
कोई इठलाई...
कसमसा के ली..
किसी ने अंगडाई...
तन-मन में भर गई उमंग-उमंग..
जब कलियों ने छेड़ा जल-तरंग...
कोई डाल पे नाची..मटक-मटक...
कोई पत्तो संग झूली...
लचक -लचक..
कोई हवा के पंख लगा आई...
ज्यो ढलके चुनरी..सरक-सरक...
जूही कचनार रात की रानी..
गाती आई सब धुन मस्तानी...
कोई करती फिरे अठखेली..
ज्यो मचले... नार-नवेली ....
कोई रंग गुलाबी बिखराए ..
ज्यो हया... चेहरे पे आये..
कोई खुशबु मंद-मंद महकाए..
ज्यो गजरे के.... फूल शरमायें..
ना मै परी..ना मै पहेली...
ना मै नैनो का ख्वाब री..
ना मै गुलाब..ना मै चमेली..
एक फूल की मै हू 'पंखुरी'...
आई मीठी तान सुनाने..
ज्यो बजे कृष्ण- बांसुरी...
ज्यो बजे कृष्ण- बांसुरी.
------------------------------------पारुल 'पंखुरी'
बहुत सुकोमल परिचय दिया है अपना , अगर मैं गलत नहीं हूँ तो ये वही कविता है जिससे आपने 'पंखुरी' नाम अपनाया था |
ReplyDeleteब्लॉग जगत में स्वागत है , आशा करता हूँ आपकी यात्रा अद्भुत हो |
सादर
haan aakash bilkul sahi pehchaana ye wahi kavita hai jo "pankhuri" naam apnaane ke baad maine pehli kavita likhi thi...swagat ke liye dher sara dhanyavaad :-)
Deleteपरिचय का यह अंदाज बहुत प्यारा लगा ..
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