कभी ओस बन के ढलकी. बनी कभी आंसुओ की निशानी.. कविता नहीं ये जज्बात हैं मेरे .. बस इतनी सी है 'पंखुरी' की कहानी
पंखुरी के ब्लॉग पे आपका स्वागत है..
जिंदगी का हर दिन ईश्वर की डायरी का एक पन्ना है..तरह-तरह के रंग बिखरते हैं इसपे..कभी लाल..पीले..हरे तो कभी काले सफ़ेद...और हर रंग से बन जाती है कविता..कभी खुशियों से झिलमिलाती है कविता ..कभी उमंगो से लहलहाती है..तो कभी उदासी और खालीपन के सारे किस्से बयां कर देती है कविता.. ..हाँ कविता.--मेरे एहसास और जज्बात की कहानी..तो मेरी जिंदगी के हर रंग से रूबरू होने के लिए पढ़ लीजिये ये पंखुरी की "ओस की बूँद"
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Tuesday, 14 October 2014
Tuesday, 7 October 2014
कांच के टुकड़े
कौन है अपना
यहाँ सब हैं पराये
हर शख्स मिला
चेहरे पे चेहरा लगाए
आगे भलाई का तिरंगा
पीछे बुराई का पुलिंदा
आगे प्यार की बौछार
पीछे खंजर से वार
ऐसे झूठ से
जब पर्दा उठता
चुभता दर्द का काँटा
दिल में हर बार
वही जख्म फिर
हरा हो जाता
मिलता उसी जगह
जब खंजर से वार
इंसानों की इस भीड़ में
मै अदना सी इंसां
मेरा दिल बस
प्यार ही तो चाहता है
क्यों बार -बार
शतरंजी चालो से
शीशे की तरह..दिल
मेरा बिखर जाता है
आज सोचा इन शीशे के
टुकडो को समेट दू
इन कांच के टुकडो को
कविता में सहेज लूँ
कविता में सहेज लूँ---------------------------------------पारुल'पंखुरी'
यहाँ सब हैं पराये
हर शख्स मिला
चेहरे पे चेहरा लगाए
आगे भलाई का तिरंगा
पीछे बुराई का पुलिंदा
आगे प्यार की बौछार
पीछे खंजर से वार
ऐसे झूठ से
जब पर्दा उठता
चुभता दर्द का काँटा
दिल में हर बार
वही जख्म फिर
हरा हो जाता
मिलता उसी जगह
जब खंजर से वार
इंसानों की इस भीड़ में
मै अदना सी इंसां
मेरा दिल बस
प्यार ही तो चाहता है
क्यों बार -बार
शतरंजी चालो से
शीशे की तरह..दिल
मेरा बिखर जाता है
आज सोचा इन शीशे के
टुकडो को समेट दू
इन कांच के टुकडो को
कविता में सहेज लूँ
कविता में सहेज लूँ---------------------------------------पारुल'पंखुरी'
Sunday, 5 October 2014
धधकती आग
एक आग धधकती सीने में
क्या इसका मै उपचार करूँ
दर्द की हवाओ से सुलगाऊं
यू ही खुद पे अत्याचार करूँ
या करूँ अब इसका आमना सामना
तन मन में हिम्मत उपजाऊं
शोले छूने से डर जाऊं
या इस आग से अब साक्षात्कार करूँ
इस आग को अपनी शक्ति बना लूँ
इसकी लपटों से जल जाऊ
जलने दू इसको सीने में
या नयन बूँद से इसका संहार करूँ
खो जाऊं अंधेरो की गहराई में
जीवन में पल पल डरती जाऊं
या इस आग से भर लू रोम रोम को
प्रहलाद बनने को मन तैयार करूँ
-----पारुल'पंखुरी'
चित्र-- साभार गूगल (www.fark.com)
Wednesday, 1 October 2014
कैदी मन
तन पिंजड़ा मन कैदी उड़ने को मेरा जी चाहे
बंधी हुई मैं जंजीरों से मन तोड़ तोड़ उनको हारे
कुछ ख्वाब टूटे कुछ ख्वाइशें अधूरी
उस पर कुछ आंसू घुटते मरते
मेरे जिस्म के एक सिरे से दूजे सिरे तक दौड़े भागे
तन पिंजड़ा मन कैदी उड़ने को मेरा जी चाहे
इस दर्द ने मुझको बहका ही लिया
मुझमें ही मुझको क़ैद किया
कौन हूँ मैं क्या नाम है मेरा
इस टीस ने ये भी भुला दिया
आईना भी मेरा मुझे पहचानता नहीं
ए मेरे खुदा मुझे तू मुझसे मिला
तन पिंजड़ा मन कैदी उड़ने को मेरा जी चाहे
मन किस दोराहे पे है खड़ा हुआ
एक छटपटाहट से है ये भरा हुआ
मेरे बंधन सारे खोल दे
सौदा है ये भी गर तुझसे
मेरी मुस्कानें तू मोल ले
कैदी मन को मेरे तू अपनी नेमतों से तोल दे
तन पिंजड़ा मन कैदी उड़ने को मेरा जी चाहे
उड़ने को मेरा जी चाहे
----------------------------------पारुल'पंखुरी'
चित्र-- साभार गूगल (www.mymodernmet.com)
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