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Thursday 26 September 2013

कजरारी...















जीवन-पथ, कांटो का आँचल
यहाँ सपने ही बस सुहाने लगे
पीड़ा तन की तो देती है दिखाई
मन की पीड़ा समझने में ज़माने लगे
शुष्क बनने की निरी कोशिश हुई
नमकीन स्वादों से हम घबराने लगे
अंधेरों से ऐसी मोहब्बत हुई
उजाले आशा के हमें अब सताने लगे
मैं क्या हूँ मैं क्यूं हूँ ,यही ढूँढते
आईने से भी अब हम लजाने लगे
ग़मों की स्याही आँखों में फैली
"कजरारी" तबसे ही हम कहाने लगे
------------------------------------------------पारुल'पंखुरी'

5 comments:

  1. बहुत उम्दा पंक्तियाँ

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  2. बहुत सुंदर और नुकीली रचना 'कजरारी' का जिस तरह से रचना में प्रयोग किया गया है वो बहुत ही सुंदर है साथ ही अनूठा भी ......

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  3. बहुत सुंदर अभिव्यक्ति ! बेहतरीन ...

    नई रचना : सुधि नहि आवत.( विरह गीत )

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  4. मन की पीड़ा किसी को दिखती नहीं ... पीनी होती है अंदर अंदर ही ...
    भापूर्ण अभिव्यक्ति है ...

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  5. अदभूत
    चीख ! तुम मेरे हो ! मन ! कजरारी

    भाव रस लिए हुए हैं रचनाएँ बहुत ही खूब

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