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जिंदगी का हर दिन ईश्वर की डायरी का एक पन्ना है..तरह-तरह के रंग बिखरते हैं इसपे..कभी लाल..पीले..हरे तो कभी काले सफ़ेद...और हर रंग से बन जाती है कविता..कभी खुशियों से झिलमिलाती है कविता ..कभी उमंगो से लहलहाती है..तो कभी उदासी और खालीपन के सारे किस्से बयां कर देती है कविता.. ..हाँ कविता.--मेरे एहसास और जज्बात की कहानी..तो मेरी जिंदगी के हर रंग से रूबरू होने के लिए पढ़ लीजिये ये पंखुरी की "ओस की बूँद"

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Wednesday, 21 May 2014

मंजिका






पड़े हैं पाँव में छाले जमीं पे फिर टिकाती है
मुरझाई मन की बगिया मोगरे से सजाती है
बदलता है चेहरा रात में, अक्सर शरीफों का
बुझाने पेट की अग्नि देह चूल्हे चढ़ाती है

जीवन क्षणभंगुर मृत्यु एक दिन सबकी आती है
उजाले में कहाँ, सच्चाई पहचानी जाती है
होती है दरवाजे पर जब धीमी कोई दस्तक
अर्थी तो नहीं उठती बे-मौत मारी जाती है

कहलाते जो सभ्य करते स्याह को हरदम सफ़ेद
लगाते मुखौटे डर से कहीं खुल जाए ना भेद
करती दाह स्वयं का वासना की प्रचंड आग में
समेटकर कलुष सब समाज को गंगा बनाती है


वह एक मंजिका है देह की मंडी सजाती है
हाँ .. वह मंजिका है

---------------------------------पारुल 'पंखुरी'

चित्र साभार google
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